Saturday, July 27

मीडिया में चर्चा है किस मर्ज की दवा है सूचना विभाग

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मेरठ 02 नवंबर (प्र)। सूचना विभाग के अधिकारी चाहे वो प्रदेश स्तर के हो या जिला स्तर के समझा जाता है कि वो सरकार के आंख नाक और कान की भूमिका निभाते है। क्योंकि जनहित की योजनाऐं मीडिया के माध्यम से जनता तक पहुंचाने और उसका लाभ पात्र व्यक्तियों को मिले इसके प्रयास करने के साथ ही पत्रकार व संपादकों अथवा फोटोग्राफरों आदि मीडिया से संबंध व्यक्तियों की समस्याओं से विभाग के उच्च अधिकारियों व सरकार को उनसे अवगत कराकर उसका समाधान कराये।
लेकिन मीडिया कर्मियों में होने वाली चर्चा के अनुसार इस विभाग के ज्यादातर अफसर अपनी जिम्मेदारियों पर शायद खरा नहीं उतर पा रहे है। ऐसा कहने वालों का कथन है कि पिछले कुछ वर्षों से जिलों में तैनात सूचना विभाग के अधिकारी सरकार की जनहित के योजनाओं के फीचर आदि बनाकर ना तो मीडिया को उपलब्ध कराते है और ना ही अपनी बेवसाइट पर डालते है। दूसरी तरफ जिलों में तैनात अफसरों का हाल यह है कि वो मीडियाकर्मियों की शासन अथवा विभाग से संबंध ज्यादातर समस्याओं के समाधान की कोशिश नहीं करते या प्रयास कर उसका समाधान इनके द्वारा नहीं कराया जाता। आखिर ऐसा क्यों हो रहा है यह सोचना तो सरकार और लखनऊ में बैठे उच्च अधिकारियों का काम है।

लेकिन फिलहाल जिलों की व्यवस्था देखे तो ज्यादातर सूचना कार्यालयों की स्थिति सारी सुविधाऐं होने के बावजूद दयनीय सी बनी हुई है। कार्यालयों के चारों तरफ रद्दी के समान अखबार फेले रहते है और सिगरेट बीड़ी का धुआं दमघोटू वातावरण पैदा करता है और ध्यान से देखे तो साफ सफाई की व्यवस्था भी वो नहीं होती जो शासन की नियमावली के अनुसार होनी चाहिए।
जितनी खबर मिलती है उससे पता चलता है कि जिलों में जिलाधिकारी की अध्यक्षता और सूचना अधिकारी के संचालन में होने वाली जिला स्तरीय अस्थाई पत्रकार मान्यता समिति की बैठकों में जो निर्णय लिया जाता है पिछली कई बैठकों से उनमें से शायद एक भी पूरा नहीं हो पाता। जिलाधिकारी और एसएसपी आदि अफसर तो व्यस्त समय में भी वक्त निकालकर बैठकों में आते है और स्पष्ट निर्देश देते है कि उठी समस्याओं का समाधान कराया जाए लेकिन बैठकों के बाद शायद सूचना अधिकारी या संबंधित अन्य अफसर उस पत्रावली को फाईल में बंद कर भूल जाते है ऐसा कई मौकों पर सुनने को मिलता है। हां एक बात हमेशा विभागीय अफसर कहते सुने जाते है कि स्टाफ कम है सुविधाऐं नहीं है। काम कैसे करे लेकिन समाचार पत्र संचालकों पत्रकारों और संपादकों का उत्पीड़न करने से संबंध पत्र लिखने और कार्रवाई करने के लिए इनके पास हमेशा आदमी भी आ जाते है और सुविधाऐं भी।

सूचना विभाग की लापरवाही के सबसे बड़े उदाहरण के रूप में मंगलपांड़े नगर स्थित मेरठ प्रेस क्लब की वर्तमान जो बद्तर स्थिति है उसके रूप में देखा जा सकता है। पिछले एक साल से जिलाधिकारी जी सूचना विभाग के अफसरों से स्पष्ट कह रहे कि इसकी पूर्ण समीक्षा कर रिपोर्ट दे और इसके लिए सक्रिय पत्रकारो व संपादकों से चर्चा भी की जाए। लेकिन आज तक शायद विभाग के अफसर मेरठ प्रेस क्लब का निरीक्षण कर रिपोर्ट तैयार नहीं कर पाए परिणाम स्वरूप कई करोड़ रूपये की सरकारी संपत्ति खुर्दबुर्द व अव्वस्थाओं का शिकार हुई पड़ी है। पूर्व प्रेस क्लब की गठित कमेटी द्वारा यहां एसी और फर्नीचर लगवाया गया था लेकिन जब से वो समिति कालातीत हुई है वहां ताला लगा रहता है जिसे खोलकर निरीक्षण कर सफाई कराना विभागीय अधिकारी शायद जरूरी नहीं समझते।

इतना ही नहीं सबसे आश्चर्य की बात यह है कि जो मीटिंगे अधिकारियों की अध्यक्षता में स्थाई समितियों की होती है उसमें लिये गये निर्णयों से भी अफसर मीडिया वालों को अवगत कराने की आवश्यकता नहीं समझते। और सबसे बड़ी बात यह है कि जिस दिन जिलास्तीय स्थाई पत्रकार समिति की बैठक होती है उसकी सूचना भी समयानुसार सदस्यों आदि को नहीं दी जाती। और क्योंकि पत्रकार खाली तो बैठे नहीं है या उनके पास सरकारी नौकरी तो है नहीं नाही उन्हें तनख्वाह मिलती है इसलिए वो समय से मीटिंगों में नहीं पहुंच पाते क्योंकि उन्हें अपने संस्थानों को चलाने के काम भी होते है। क्योंकि उन्हें अपना संस्थान चलाने के लिए खुद ही प्रयास करने होते है।

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