हम भारतीय आपस में चाहे कितना ही उलझ लें विभिन्न बिंदुओं को लेकर एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप कर लंे लेकिन जहां देश की एकता और मजबूती की बात आती है। वहां इतिहास बताता है कि हम सब भूलकर एक हो जाते है। क्योंकि भले ही विभिन्न कारणांे से हममें वैचारिक मतभेद पैदा होते हैं लेकिन राष्ट्रीय एकता सदभाव और एक दूसरे के धर्म का सम्मान करने के मामले में हमसे आगे शायद दुनिया में कोई ना हो। ऐसी परिस्थितियों में सुप्रीम कोर्ट को यह कहना पड़े कि देश बचाने को सरकार को दी जानी चाहिए छूट काफी गंभीर और सोचनीय विषय है। एक खबर के अनुसार सुप्रीम कोर्ट ने गत बुधवार 6 दिसंबर को कहा कि पूर्वोत्तर के कई राज्य उग्रवाद व हिंसा से प्रभावित हैं और देश को बचाने के लिए सरकार को आवश्यक बदलाव की स्वतंत्रता और छूट दी जानी चाहिए। असम में लागू नागरिकता अधिनियम की धारा-6ए का जिक्र करते हुए प्रधान न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि देश के समग्र कल्याण के लिए सरकार को कुछ समझौते करने होते हैं। उन्होंने कहा, ‘हमें सरकार को कुछ छूट भी देनी होगी।
क्योंकि आज भी पूर्वोत्तर के कुछ हिस्से ऐसे हैं, हम उनका नाम नहीं ले सकते, लेकिन ऐसे राज्य हैं जो उग्रवाद और हिंसा से प्रभावित हैं। हमें सरकार को उतनी छूट देनी होगी कि वह देश को बचाने के लिए जरूरी बदलाव कर सके।’
उन्होंने यह टिप्पणी तब की जब याचिकाकर्ताओं की ओर से पेश वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान ने कहा कि धारा-6ए एक समान रूप से लागू होती है और घुसपैठियों को फायदा पहुंचाती है जो नागरिकता कानून का उल्लंघन कर असम में रहते आ रहे हैं। संविधान पीठ असम में घुसपैठियों से संबंधित नागरिकता कानून की धारा-6ए की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली 17 याचिकाओं पर सुनवाई कर रही है।
केंद्रीय शासित प्रदेश परामर्श के लिए तैयार करे नीति
नागरिकता कानून में धारा-6ए को असम समझौते के तहत आने वाले लोगों की नागरिकता से निपटने के लिए विशेष प्रविधान के रूप में जोड़ा गया था। इसके मुताबिक, बांग्लादेश समेत निर्दिष्ट क्षेत्रों से एक जनवरी, 1966 के बाद और 25 मार्च, 1971 से पहले असम आए और तब से वहीं रह रहे लोगों को धारा-18 के तहत भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए अपना पंजीकरण कराना होगा। दीवान ने इस प्रविधान को गैरकानूनी घोषित करने की मांग करते हुए गत मंगलवार को केंद्र को यह निर्देश देने की मांग भी की थी कि छह जनवरी, 1951 के बाद असम आए भारतीय मूल के सभी लोगों को बसाने व उनके पुनर्वास के लिए वह राज्यों व केंद्र शासित प्रदेश के परामर्श से एक नीति तैयार करे।
आज भी असम में अवैध रूप से आने का कर रहा है दावा
पीठ ने सवाल किया कि क्या संसद इस आधार पर असम में संघर्ष जारी रहने दे सकती है कि कानून राज्यों के बीच भेदभाव करेगा। 1985 में असम की स्थिति ऐसी थी कि वहां बहुत हिंसा हो रही थी। उन्होंने जो भी समाधान खोजा होगा वह निश्चित रूप से अचूक होगा। शुरुआत में दीवान ने कहा कि असम के घुसपैठियों से विदेशी अधिनियम की धारा-तीन के तहत निपटे जाने की जरूरत है। उन्होंने कहा कि धारा-6ए का अस्तित्व आज भी असम में अवैध रूप से आने और नागरिकता के लिए दावा करने में मदद करता है।
नागरिकता कानून की धारा-6ए की वैधता को चुनौती पर सुनवाई के दौरान की टिप्पणी
असम को सजातीय एकल वर्ग से अलग करना अस्वीकार्य वरिष्ठ अधिवक्ता दीवान ने कहा, असम व पड़ोसी राज्य सजातीय एकल वर्ग बनाते हैं और असम को उनसे अलग करना अस्वीकार्य है। किसी हिंसक या राजनीतिक आंदोलन के बाद किया गया राजनीतिक समझौता वर्गीकरण का आधार नहीं है। उन्होंने कहा, बिना किसी समयसीमा के बड़ी संख्या में घुसपैठियों को नियमितीकरण की मंजूरी देना असम के लोगों की आर्थिक, सामाजिक व राजनीतिक आकांक्षाओं को कमजोर करता है।
भले ही देश के स्वर्णिम विकास और नागरिकों की हरसंभव सुविधाओं को उपलब्ध कराने के दृष्टिकोण से देश प्रदेशों की सीमाओं में बंधा हो लेकिन हमारी एकता और देश को नुकसान पहुंचाने वाले बाहरी हो या कोई ऑेर यह अच्छी तरह समझ लें कि हम देश और समाज के नाम पर कुछ भी कर सकते हैं जिसका जीता जागता उदाहरण कोरोनाकाल में सभी को देखने को मिला। क्योंकि उस दौरान हम हर तरह का विवाद और धार्मिक आस्था भूल मानव सेवा और एक दूसरे को बचाने के कार्य में अग्रण्ीाय तो रहे ही कुछ लोगों ने अपने प्राणों की आहूति देने में भी देर नहीं लगाई। कुल मिलाकर मेरा कहने का आश्य सिर्फ इतना है कि इस मामले में याचिकाकर्ता वरिष्ठ अधिवक्ता श्याम दीवान द्वारा जो विषय उठाया गया है और उस पर सुप्रीम कोर्ट ने जो निर्णय लिया। मेरा मानना है कि अब केंद्र सरकार का रक्षा गृह कानून और मानव संसाधन मंत्रालय आदि अधिकारियों को मिलकर जल्द से जल्द ऐसा निर्णय लेना चाहिए जिससे अदालत ने जिस ओर ध्यान दिलाया है वो व्यवस्था दुरूस्त हो सके क्योंकि छोटी बातें आगे चलकर बड़ी हो जाती हैं और कई मामले अब मानव हित के विरोध में नासूर से बनते जा रहे हैं इसलिए इन सबमें सुधार होना वक्त की सबसे बड़ी मांग है।
सांसदी छोड़कर विधायकी लड़़ने और दल बदलने पर निर्वाचन आयोग लगाए रोक
अपने देश के लोकतंत्र की धमक दुनियाभर में मानी जाती है। क्योंकि हम दूसरों की भावनाओं का सम्मान करने के साथ साथ अपनी बात कहने में भी चूकते नहीं है। और हमें जो बोलने का अधिकार मिला है उसके तहत मेरा निर्वाचन आयुक्तों को विनम्र सुझाव है कि निर्वाचन संबंधी कानूनों में सुधार करते हुए जीते हुए जनप्रतिनिधियों के दल बदल पर रोक लगाए और दूसरे जो नेता सांसद या विधायक का पद समय से पहले छोड़कर दूसरा चुनाव जो लड़ते हैं उससे एक तो समय की बर्बादी होती है दूसरी आर्थिक परेशानियां भी बढ़ती है। क्योकि जब कुछ दल बदलू द्वारा वर्तमान पद छोड़कर दूसरे पद पर चुनाव लड़ा जाता है तो उसमें पैसा समय और सरकारी मशीनरी एवं मतदाताओं का भी वक्त खराब होता है। क्योंकि जो पद जनप्रतिनिधि छोड़ते हैं उस पर पुन चुनाव कराने पर क्या स्थिति होती है यह किसी को बताने या समझाने की जरूरत नहंीं है। मेरा मानना है कि दल बदलुओं या पद छोड़कर दूसरा चुनाव लड़ने पर रोक लगा दें तो समय की बचत होगी। हिंसा की संभावना कम होंगी। सरकारी मशीनरी उसकी जगह दूसरे विकास कार्यों में अपना समय लगा सकती है। अभी हाल में पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में दस लोकसभा सदस्यों द्वारा जो विधायकी जीती गई उनके स्थान पर तो अभी शायद उपचुनाव ना कराए जाएं क्योंकि 2024 के लोकसभा चुनाव आने वाले हैं। मगर हमेशा ऐसा नहीं होता। जो व्यक्ति अपने पद से इस्तीफा देता है उसके स्थान को भरने के लिए चुनाव घोषित होते हैं और आचार संहिता भी लागू होती है। वह सब होता है जो नहीं होना चाहिए इसलिए निर्वाचन आयेाग इस संदर्भ में गहन विचार विमर्श कर लें ऐसा मेरा निर्वाचन आयुक्तों से आग्रह है।
सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर देश बचाने को सरकार ले शीघ्र निर्णय
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