Monday, November 24

गुरु तेग बहादुर साहिब जी के 350वें शहीदी दिवस पर 27 को थिएट्रिकल लाइट एण्ड साउड लाइव शो एवं 28 को कीर्तन दरबार का आयोजन

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मेरठ, 24 नवंबर (प्र)। गुरु तेग बहादुर पब्लिक स्कूल में आए एक प्रेसवार्ता का आयोजन किया गया। जिसमें बताया गया कि गुरू तेगबहादुर साहिब जी के ३५०वें शहीदी दिवस पर स्कूल में २७ को थिएट्रिकल लाइट एंड साउंड शो व २८ नवंबर को कीर्तन दरबार का आयोजन किया जाएगा।

1675 ई0 में जब कश्मीरी पंडितों पर बादशाह औरगंजेब अत्याचार कर जबरन धर्म परिवर्तन करा रहा था। तब कश्मीरी पडिंत कृपा राम की अगुवाई में कश्मीरी पंडितों का एक जत्था गुरू तेग बहादुर जी के पास आया और कहा कि बादशाह औरंगजेब हमसे जबरन धर्म परिवर्तन कराने की कोशिश कर रहा है और हम पर बहुत अत्याचार किया जा रहा है। गुरु जी ने उनकी पीड़ा को समझा और कहा कि धर्म और मानवता की रक्षा के लिए किसी महान व्यक्ति के बलिदान की आवश्यकता है। तभी पास बैठे श्री गुरु साहिब के पुत्र श्री गोविंद रॉय जिनकी उम्र मात्र 9 वर्ष थी ने कहा-पिताजी आपसे बड़ा महापुरूष इस बलिदान के लिए और कौन हो सकता है? जो इतनी बड़ी कुर्बानी दे सके। पुत्र के शब्दों को सुनकर गुरू जी ने स्वयं का बलिदान देने का फैसला किया। औरंगजेब के पास संदेश भिजवाया कि यदि बादशाह हमारे गुरू का धर्म परिवर्तन कराने में सफल हो जाए जो हम सभी खुशी-खुशी इस्लाम कुबूल कर लेंगे।

गुरू जी के इस संदेश को सुनकर औरंगजेब ने उन्हें गिरफ्तार करने का फैसला किया। गुरूजी को उनके शिष्य भाई मतीदास, भाई सतीदास और भाई दयाला जी के साथ बंदी बनाकर दिल्ली के चांदनी चौक लाया गया। धर्म परिवर्तन के लिए जब उसकी सारी कोशिशे नाकाम हो गई तो बादशाह ने गुस्से में दिल्ली के चांदनी चौक पर उनके प्रिय शिष्य भाई मतीदास को आरे से चिरवाया, भाई सतीदास को रूई में लपेटकर आग के हवाले कर दिया एवं भाई दयाला जी को उबलते पानी के देग में डाल कर शहीद कर दिया। फिर भी गुरू जी अपने शिष्यों की शहादत को देखकर बादशाह के आगे नहीं झुके और ना ही इस्लाम कुबूल करने को राजी हुए तो औरंगजेब ने उनके शीश को धड़ से अलग करने का आदेश दिया। चारों ओर कोहराम मच गया। इसी बीच उनके एक शिष्य भाई जैता जी ने उनका शीश श्रद्धा से उठाया और आनंदपुर के लिए रवाना हो गया। दूसरा शिष्य लक्खी शॉह बंजारा ने उनका धड़ अपनी झोपड़ी में रख आग लगाकर उनका अंतिम संस्कार कर दिया, जहां आज दिल्ली, संसद भवन के पास रकाबगंज गुरूद्वारा स्थित है तथा आनंदपुर साहिब में जहां उनके शीश का अंतिम दर्शन किया जाता है।

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