Monday, December 23

डाक्टरों की फीस तय करने में सरकार की आनाकानी ठीक नहीं, जनहित याचिका पर सबके हित में लेना चाहिए निर्णय, एमके बंसल जैसे चिकित्सक बढ़ा रहे सम्मान

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वेटरन्स फोरम फॉर ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक लाइफ संगठन द्वारा एक जनहित याचिका दायर कर मांग की गई थी कि देश में इलाज की दरें तय होनी चाहिए। जिसे स्वीकार करते हुए माननीय उच्च न्यायालय द्वारा बीते फरवरी में जानकारी अनुसार केन्द्र सरकार से पूछा क्या कि क्लीनिकल इस्ट्रैब्लिशमेंट पंजीकरण और विनियम अधिनियम 2010 के तहत निजी अस्पतालों में उपचार सेवाओं के लिए कीमतों की सीमा क्यों तय नहीं की गई। जिस पर स्वास्थ्य मंत्रालय ने यह जानकारी दी कि डाक्टरों की फीस तय करना राज्यों की जिम्मेदारी है। मगर सुप्रीम कोर्ट में केन्द्र ने कहा कि सीमा तय होने से इलाज की गुणवत्ता हो सकती है प्रभावित। जिसके जबाव में सरकार ने 37 पेज के हलफनामें में जानकारी दी कि क्षेत्रीयता के आधार पर इलाज की राशि निर्धारित होनी चाहिए। एक मरीज को कितना भुगतान करना है। यह अस्पताल का प्रकार शहर और डाक्टर के अनुभव पर निर्धारित होता है। मंत्रालय ने यहां तक कहा कि किसी भी मूल्य सीमा को तय करने से स्वास्थ्य देखभाल या रोगी के उपचार की गुणवत्ता से गंभीर समझौता हो सकता है। इलाज की दरें तय करने से अस्पतालों को वित्तीय रूप से अव्यवहार्य बनाने जैसे गंभीर हालत पैदा हो सकते है।
बताते है कि मध्य प्रदेश और गुजरात का हवाला देते हुए मंत्रालय ने कहा कि बीते मार्च माह में राज्यों के साथ इस विषय पर चर्चा हुई जिसमें इन दोनों राज्यों ने कहा कि किसी भी दर सीमा को तय करने में गुणवत्ता के साथ समझौता हो सकता है। और इस बात का उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड़ की सरकारों ने भी इसका समर्थन किया है। यह उत्तर देने वाले इन 4 राज्यों में भाजपा की सरकार है उन्हें ऐसा जबाव नहीं देना चाहिए था।ऐसा मेरा जनहित में मानना है। पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि उनके यहां 95 फीसदी आबादी को स्वास्थ्य सेवाऐं मिल रही है इसलिए उनके यहां यह व्यवस्था तय करने की आवश्यकता नहीं है।
मुझे लगता है इनसे पूछा जाए कि बाकी पांच प्रतिशत के लिए बंगाल सरकार क्या कर रही है।
सवाल यह उठता है कि जब सरकार शराब सिगेरट और आवश्यकता पड़ने पर चीनी चावल दाल अथवा गेहूं फल सब्जी प्याज टमाटर के दाम तय करने की ताकत रखती है तो भला देश की 100 प्रतिशत आबादी से संबंध जो विषय सबको प्रभावित करता है उस पर निर्णय लेकर दर क्यों तय नहीं कर सकती। जहां तक क्षेत्र व अस्पताल के प्रकार आदि का सवाल है तो मुझे लगता है कि यह विषय सोचना का ही नहीं है। क्योंकि जहां तक पता चलता है आदरणीय चिकित्सकों को डिग्री देते समय या एडमीशन लेते समय यह भी तय कराया जाता है कि वो चिकित्सक बनने के बाद कुछ समय ग्रामीण क्षेत्रों में अपनी सेवाऐं देंगे। ऐसे में कोई भी डाक्टर सड़क पर बैठकर तो गांव देहातों में प्रैक्टिस करेगा नहीं क्लीनिक बनाना ही पड़ेगा चाहे छोटा बनाये या बड़ा। बस फर्क यह पड़ता है कि शहरों में जमीन कुछ महंगी और गांव में कुछ सस्ती होगी तो यह कह सकते है कि वो तो एक ही बार खरीदनी होगी बाकी निर्माण और चिकित्सा संबंधी यंत्र तो गांव देहात या शहरों सब में एक ही कीमत पर मिलेगें। अब सवाल यह उठता है कि डाक्टर की काबलियत तो जो पूरी शिद्दत के साथ पढ़कर आया है उसे अपनी प्रतिष्ठिा और विश्वास कायम करने के लिए देहात गांव और शहर दोनों जगह मेहनत करनी पड़ेगी तो फिर इलाज और उसकी गुणवत्ता कैसे प्रभावित हो सकती है। इसलिए मूल्य सीमा तय करने में केन्द्र सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय को कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए। और अगर फिर भी जरूरी हो तो यह तय किया जा सकता है कि साधन संपन्न मरीजों के मुकाबले गरीब और असहाय मरीजों के परिवारों से देखने और इलाज करने की कीमत का शुल्क कितना लिया जा सकता है इससे ज्यादा नहीं। यह तय करने में भी कोई हर्ज नहीं है। और वैसे तो अगर सरकार सर्वे कराये तो शहर और देहातों में कुछ इतने बड़े काबिल डाक्टर मिलेगें जिनका मुकाबला बड़े बड़े नर्सिंग होमों और अस्पताल के डाक्टर नहीं कर सकते फिर भी वो अपनी फीस 100 रूपये के आसपास ही लेते है और साथ में दवाई भी मुफ्त दे देते है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए मेरा मानना है कि वेटरन्स फोरम फॉर ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक लाइफ ने जो याचिका दायर की है वो समयानुकूल और आम आदमी के हित में है। अगर सरकार इस संदर्भ में किन्हीं कारणों से कोई निर्णय लेने में सक्षम महसूस नहीं करती तो फिर माननीय न्यायालय को ही अपने अधिकार का इस्तेमाल कर आम आदमी के हितों में सरकार को फैंसला लेने के लिए मजबूर करना होगा जैसे और मामलों में हो रहा है। लेकिन आम जनमानस के स्वास्थ्य से संबंध मामले में केन्द्र सरकार का यह कहना इलाज के शुल्क में सीमा तय करने से प्रभावित हो सकती है गुणवत्ता एक बचकाना कथन और उत्तर ही कह सकते है।
वैसे मैंने अपने लगभग 7 दशक के जीवन में यह महसूस किया है कि ज्यादातर चिकित्सक बाकई में भगवान का रूप होते है और मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण होने के चलते वो नामचीन होने के बाद भी मरीज और अभिभावकों की हालत को देखकर काफी कुछ उनके हित में करने से नहीं चूकते है।


इसके जीते जागते उदाहरण के रूप में आईएमए यूपी के पूर्व अध्यक्ष डा0 एमके बंसल को देखा जा सकता है। जो कम शुल्क में मरीजों को देखने के साथ ही उनका इलाज भी कर रहे है और अभिभावकों की संतुष्टि करते हुए चिकित्सकों का मानसम्मान भी बढ़ाने का काम भी उनके द्वारा किया जा रहा है। डा0 एमके बंसल जैसे चिकित्सकों के कारण ही मेरी निगाह में आज भी हम ज्यादातर चिकित्सकों को सम्मान के साथ अच्छी दृष्टि से देखते है। लगाम तो उन कुछ चिकित्सकों की फीस पर लगानी है जो इस पवित्र पैसे को अपनी आमदनी और ऐश परस्ती का साधन बनाने में जुटे हुए है। कुछ चिकित्सकों और उनके अभिभावकों का इस संदर्भ में कथन कि कितनी पढ़ाई और मेहनत करके आज ये दिन देखने को मिला है तो अपनी खुशहाली के लिए इसका उपयोग क्यों न करें। पर मेरा मत है कि परिवार की खुशहाली प्रसन्नता और अपने नाम के साथ ही मन की शांति के लिए भी कुछ करना जरूरी है। और अगर डाक्टर समय लगाकर पढ़ाई करते है तो सरकार भी काफी पैसा एक डाक्टर की पढ़ाई पूरी कराने में खर्च करती है। और वो धन नागरिकों के द्वारा खून पसीने की कमाई से दिये गये टैक्स से ही निकलकर आता है इसलिए फीस भी तय होनी चाहिए और कुछ निरकुंश डाक्टरों की कार्य प्रणाली पर अंकुश भी लगना चाहिए।

(संपादकः रवि कुमार बिश्नोई दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)

 

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