Saturday, July 27

विश्व प्रसिद्ध कथा सम्राट हजारों की भीड़ जुटाने में सक्षम रमेश भाई ओझा के स्तर आयोजन नहीं बना पाए

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भले ही हमारे समक्ष कितनी आर्थिक कठिनाईयां हो लेकिन जहां धर्म का मामला आता है हम सब कुछ भूल जाते है। एकमात्र अगर कोरोना काल को छोड़ दें तो धर्म के प्रचार और सम्मान के मामले में कभी कोई भी समझौता करने को तैयार नहीं होता। यह बात अपने आप को महिमामंडन करने और अपनी कारगुजारियों को छिपाने के लिए ऐसे आयोजनों में सक्रिय कुछ लोग आसानी से समझ चुके हैं। भागवत कथा और भक्तों की इन जनभावनाओं का लाभ उठाने के लिए इनके द्वारा आए दिन कहीं ना कहीं धार्मिक आयोजन कराए जा रहे हैं और जाते हैं। अगर ध्यान से देखें तो इसमें किसी को ऐतराज भी नहीं है लेकिन अफसोस तब होता है कि जब हमारे विद्वान जिनको सुनने के लिए हजारों महिला पुरूष दूर तक जाते हैं उनकी कथा या कार्यक्रम ऐसे लोग कराते हैं और उनमें भीड़ भी नहीं जुटती।
इसके जीते जागते उदाहरण के रूप में कथा प्रेमियों और धार्मिक लोगों के अनुसार तीन से दस दिसंबर तक भैंसाली मैदान में हुई कथा में उतनी भीड़ नहीं जुट पाई जितनी होनी चाहिए थी। ऐसा क्यों हुआ यह तो आयोजकों को सोचना है।
विश्व प्रसिद्ध कथा सम्राट रमेश भाई ओझा जी की तीस साल पूर्व जब कैंट में कथा हुई थी तो प्रतिदिन हजारों लोग उन्हें सुनने के लिए पहुंचते थे। उस आयोजन को याद कर कुछ धार्मिक जनों का कहना है कि दस से तीस हजार तक लोग भी उस कथा में जुटे थे। यह अटल सत्य है कि जब रमेश भाई ओझा अपने मधुर वाणी से भागवत कथा की रसवर्षा करते हैं तो दूर दूर से लोग खींचे चले आते हैं। नरसी का भात आदि कुछ कथाएं तो ऐसी हैं जो सुनने वाले को मग्न कर देती है लेकिन इस बार भीड़ का ना जुटना क्यों रहा। इस बारे में एक सज्जन का कहना बिल्कुल सही लगता है कि भले ही कथा सार्वजनिक स्थान पर कराई हो लेकिन यह कुछ खास लोगों के लिए ही होकर रह गई। आम जनता को इससे जोड़ने की कोशिश नहीं की इसलिए लोग कथास्थल तक नहीं गए कि कहीं आयोजकों के हाथों बेइज्जत होकर ना जाना पड़े। इसको लेकर कुछ लोगों का यह भी कहना है कि कथा के प्रचार प्रसार पर ध्यान ना देकर अपना नाम और फोटो छपवाकर जो मैगजीन प्रकाशित की गई उसमें भी इस आयोजन में सक्रिय भूमिका निभा रहे धार्मिक कार्यकर्ताओं को स्थान ना देकर कुछ विवादित छवि के नामचीन व्यक्तियों का ही वर्चस्व रहा। यही स्थिति सम्मान समारोह को लेकर हुई। कई कथाप्रेमियों का कहना है कि सम्मान समारोह व्यवधान का कारण बनता था इसलिए कोई भी कथा प्रेमी कथा के दौरान रमेश भाई ओझा और अपने बीच किसी को पसंद नहीं करता। इसलिए शुरू में कुछ भीड़ आई जो बाद में कम होती गई। रमेश भाई ओझा जी कथाओं में भीड़ जुटाने के लिए विज्ञापन छपवाना पड़ा फिर भी वह सफल नहीं हो पाए क्योंकि भक्तो के लिए लगाई कुर्सियां ज्यादातर खाली पड़ी रही।
छात्राएं कैंसे शामिल हुई
कुछ धार्मिक जनों का कहना है पहले दिन निकली कलश यात्रा में जो स्कूली छात्राओं को पैदल चलाया गया वो सही नहीं था। सरकार ने किसी भी आयोजन में छात्र छात्राओं को इस प्रकार ले जाने पर रोक लगाई हुई है। उसके बावजूद भी स्कूलों ने छात्राओं को बिना अभिभावकों की मर्जी के कैसे भेज दिया इस बारे में तो वो ही जवाब दे सकते हैं।
कार्यक्रम में एक संगीत संध्या का आयोजन होना था। जिसका प्रचार भी किया गया था लेकिन ऐन वक्त पर आयोजकों में विवाद हो गया और संगीत संध्या स्थगित करनी पड़ी।
कुल मिलाकर उक्त कथा का आयोजन रमेश भाई ओझा जी के भक्तों की निगाह में उनके स्तर का नहीं था। आयोजक भी अपने महिमामंडन हेतु खींचतान में लगे रहे। लोगों का तो यह भी कहना है कि तीन से दस तारीख के बीच कथा आयोजकों में कई ग्रुप बन गए थें
यह रहे निर्विवाद
एकमात्र आनंद प्रकाश अग्रवाल और उनके सहयोगी निर्विवाद रहे। तथा भाई जी के निवास के लिए जो व्यवस्था की गई थी वो सराहनीय थी लेकिन आयोजकों ने अपने कृपापात्रों को छोड़कर अन्य किसी को उनसे नहीं मिलने दिया।
प्राइवेट लिमिटेड कंपनी बना दिया
अगर कथाप्रेमियों से उभरकर आए इन बिंदुओं को ध्यान में रखकर सोचा जाए तो कथा को प्राइवेट लिमिटेड कंपनी का आयोजन शुरू से ही अपनी आत्मप्रशंसा और महिमामंडन के लिए बनाए रखा गया। जिसको कोई भी सही बताने को तैयार नहीं था। उक्त तथ्य जनहित में इसलिए प्रकाशित किए जा रहे हैं कि आयोजन में जनता का पैसा लगा था और उसका मजा कोई और लेना चाहता था। नागरिकों का मानना है कि अपने महिमामंडन या विवाद का माध्यम ना बनाकर धार्मिक दृष्टिकोण से ही अगर कराया जाए तो अच्छा है।
तत्वावधान में एक ही नाम कैसे रह गया
चर्चा है कि कथा से पूर्व यह तय हुआ था कि यह आयोजन काली पलटन मंदिर अन्नपूर्णा क्षेत्र के तत्वावधान में होगा मगर कथा शुरू होते ही सिर्फ एक ही नाम में समाहित हो गया जिसे लेकर चर्चा शुरू हुई तो एक बार दूसरी संस्था का नाम भी लिया गया मगर जो सम्मान मिलना चाहिए था वो नहीं मिला।
अधिकारिक जानकारी तो कोई नहीं है लेकिन सूत्रों का कहना है कि कथा पर लगभग एक करोड़ रूपये खर्च हुआ फिर भी जगह जगह भक्तों को लाने के लिए गाड़ी भेजे जाने पर भी भीड़ इकटठा नहीं हुई जो इस बात का प्रतीक है कि आयोजकों का आम नागरिकों से कोई सीधा संपर्क नहीं हो पाया। यह भी कहा जा रहा है कि अगर शादी विवाह नहीं चल रहे होते तो कथा में लोग खुद ही रमेश भाई ओझाा को सुनने चले आते।

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