देश में परिस्थितियां कैंसी भी रही हो, हम हमेशा एक ही रहे हैं। एकता हमारी पहचान है। भले ही कुछ मुददों पर हमारी राय अलग हो सकती थी मगर आजादी के युग से लेकर हम जनहित में एक नजर आए हैं। स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चंद्र बोस, सरदार भगत सिंह, बिस्मिल आदि की सोच में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की सोच से इतेफाक ना रहा हो लेकिन जहां स्वतंत्रता संग्राम के मुददे पर सब एक नजर आते थे।
वर्तमान में देश की एकता अखंडता भाईचारे को मजबूत करने की जहां बात होती है विचार अलग होने के बाद भी नेता समाजसेवी सभी एक सुर में बोलते हैं। कुछ माह पहले पहलगाम में जो नरसंहार हुआ उसके दोषियों और उन्हें प्रोत्साहन देने वालों को सजा देने में हम सब एकजुट रहे। कांग्रेस के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि सरकार जो कार्रवाई करेगी हम उसके साथ हैं। इतनी मजबूती और वैचारिक एकता के बावजूद वो कौन से कारण है जिनके चलते हम आज भी एकता की बात कर रहे हैं क्योंकि एक तो हम हमेशा से ही हैं फिर भी जिनके एक इशारे पर देशभर में लोग मदद के लिए खड़े हो जाते हैं उन्हें पीड़ितों की सहायता के लिए क्रिकेट मैच क्यों खेलना पड़ रहा है आखिर इतने बड़े संत जिनहें सुनने के लिए लाखों लोग एकत्र होते हैं और भक्त जहां चाहें वहां पहुंच जाते हैं ऐसे संतों को किसी की सहायता के लिए मैच खेलने के लिए मैदान में उतरना पड़े उसे अच्छा तो कहा जा सकता है लेकिन उनके प्रति जनसमर्थन के संघर्ष को देखते हुए नहीं
हम पढ़ना लिखना जानते नहीं तो ग्रंथों में क्या लिखा है यह भी विश्वास से नहीं कह सकते मगर जितना सुनने को मिलता है उससे यही कहा जा सकता है कि अपने देश में पहले हर त्योहार एक ही दिन मनाया जाता था कहते हैं कि साल के ३६५ दिन में कोई ना कोई हिंदू त्योहार होता है बाकी संप्रदायों में ऐसा नहीं है उनके यहां साल में कुछ ही त्योहार मनाए जाते हैं। वो एक ही समय और दिन में होते हैं मगर हमारे यहां पिछले कुछ दशक से जो देखने को मिल रहा है उसमें काफी त्योहार दो दिन मनाए जाने लगे हैं। धीरे धीरे ऐसा ही चला तो वो दिन दूर नहीं जब सभी त्योहार व्रत दो दिन मनाए जाने लगेंगे। ऐसा हुआ तो वो धर्म समाज देश किसी के लिए भी सही ंनहीं कह सकते।
सोचने का विषय यह हेै कि आम से लेकर हमारे साधु संत समाजसेवी, नेता एकता की बात कर रहे हैं। सरकारें जातियों पर चर्चा करने और उनका उच्चारण वाहनों पर लिख्रने सम्मेलन करने पर रोक लगा रही है। तो आखिर वो कौन से विषय है जो सब मिलकर एक दिन त्योहार मनाने का निर्णय लेकर देशवासियों को उसे मनाने का संदेश नहीं दे पा रहे हैं। इस बारे में मैं ही नहीं सोच रहा विद्वान और समाज सुधारक भी अब यह चर्चा सुनने को मिलने लगी है कि आखिर त्योहार व व्रत को एक दिन मनाने का निर्णय क्यों नहीं ले सकते। यह चर्चा करने वालों में इसे लेकर कई प्रकार के विचार उत्पन्न होने लगे हैं। खुलकर अभी कोई नहीं बोल रहा है मगर जिस प्रकार से कहते हैं कि कहीं चिंगारी लगी है तो धुंआ भी उठता है उसी तरह विचार भी मुखर होंगे और वो स्थिति किसी के लिए भी सहीं नहीं कही जा सकती।
मेरा मानना है कि या तो हम समाज को एकता का संदेश देना और इस बारे में सोचने और कहना छोड़ दें या अग्रणी व्यक्ति एक होकर यह संदेश देना शुरु करें कि व्रत और त्योहार किस दिन होंगे। अगर ऐसा नहीं किया जाता और एक विद्वान कुछ कहता है दूसरा कुछ तो एकता नहीं हो पाएगी और विश्वसनीयता और आस्था भी डगमगाने लग सकती है। ऐसा ना हो इसके लिए हमेशा सुनता चला आया हूं कि भक्त जब कुछ ठान लेते हैं तो भगवान को भी सुनना पड़ता है और उसका भी समाधान किया जाता है इसे ध्यान रखते हुए भक्त और पुजारी पंडित व नागरिकों को अपनी भावनाओं से गुरूओं व संतों को अवगत कराकर एकता का प्रयास करने पर ही हम सामूहिक मुददों में निर्णय ले सकते हैं। आओ देश धर्म और समाज हित में एकजुट होकर जमीनी प्रयास शुरु करें। मैं पूरे विश्वास के साथ समाज में कोई वजूद ना होने के बाद भी कह सकता हूं कि मन में है विश्वास हम होंगे कामयाब की पंक्तितयों का साकार रूप हमें देखने को मिलेगा। इसलिए आओ एक फिल्मी तुम रूठी रहो मैं मनाता रहूं जीने का मजा आता रहे के समान हम संतों विद्वानों को मनाकर समाज की भलाई और एकता के लिए तैयार कर सकते हैँ और इस प्रयास को कोई असफल नहीं कर सकता। वर्तमान समय में तो हमारी केंद्र व प्रदेश सरकारें पीएम मोदी के मार्गदर्शन में एकता बनाए रखने जातिवादी व्यवस्था रोकने का प्रयास कर रही है। ऐसे में जनमानस का फैसला सर्वमान्य होगा और एकता की भावना का झंडा बुलंद होगा ऐसा सोचने में कोई बुराई नहीं लगती है।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
एकता के यह कैसे प्रयास हम त्योहार भी एक दिन नहीं मना पा रहे
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