मेरठ 02 सितंबर (प्र)। करीब 30 करोड़ कीमत की संपत्ति कैंट बोर्ड अब तक भूले बैठा रहा। हालांकि अब सीईओ की सख्ती के बाद जिस अतिथिगृह के कब्जे वाले हिस्से पर कैंट बोर्ड का स्टाफ जाने की हिम्मत तक नहीं जुटा पाता था।
दरअसल, कैंट बोर्ड ने साल 2008 में अतिथिगृह को एक साल के लिए संतोष शर्मा को किराए पर दिया था। उस वक्त कैंट बोर्ड के सीईओ केसी गुप्ता थे। किराएदार को एक साल की एक्सटेंशन दी गयी। उसके बाद अतिथिगृह को बजाए खाली करने के किराएदार तत्कालीन उपाध्यक्ष की मदद से सिविल कोर्ट से स्टे ले आया। यहां वह गौरतलब है कि कैंट बोर्ड ने केवल नीचे का हिस्सा किराए पर दिया था। साल 2010 में अतिथि ग्रह के किराएदार पर पीपीई एक्ट के तहत कार्रवाई की। किराएदार ने अपील की। उसकी अपील को सुनवाई करने वाले अधिकारी सीईओ ने खारिज कर कर उसको संपत्ति से बेदखल कर दिया। उसके बाद संतोष शर्मा हाईकोर्ट पहुंच गया। वहां उसने बताया कि मौखिक रूप से कैंट बोर्ड प्रशासन ने यह संपत्ति उसको 30 साल के लिए किराए पर दी है। यही बात उसने सिविल कोर्ट में कही थी। कैंट बोर्ड के संबंधित लिपिक ने मामले की पैरवी नहीं कि नतीजा यह हुआ कि हाईकोर्ट ने संतोष शर्मा को स्टे दे दिया। स्टे के बाद होना यह चाहिए था कि स्टे को खत्म कराने के लिए कैंट बोर्ड के संबंधित लिपिक मजबूती से पैरवी करते, लेकिन जानकारों की मानें तो बजाए मजबूती से पैरवी करने के उल्टे उन्होंने कैंट बोर्ड के खिलाफ जाकर अतिथिगृह में पार्टनरशिप कर ली।
सुनने में आया है कि पार्टनरशिप का ऑफर किराएदार की ओर से इस शर्त पर दिया गया कि अतिथिगृह के खिलाफ हाईकोर्ट में पैरवी नहीं की जाएगी और हुआ भी वैसा ही नतीजा यह हुआ कि आज तक अतिथिगृह किराएदार के कब्जे में है। कैंट बोर्ड के जिन दो कर्मचारियों के नाम किरादार के पार्टनरों के रूप में सामने आए हैं। उनमें से राजीव श्रीवास्तव की मौत हो चुकी है, जबकि दूसरे रिटायर्ड हो चुके हैं। इसके चलते हाईकोर्ट में भी अतिथिगृह की फाइल बोर्ड की फाइलों के ढेर में नीचे दबी रही। बताया गया है कि मजबूत पैरवी कर हाईकोर्ट को बताया जाता कि किराएदार को बेदखल कर चुका है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जिस अतिथिगृह से हर साल करोड़ों रुपये की कमाई की जा रही है, उस अतिथिग्रह से कैंट बोर्ड को आज तक एक पाई नहीं मिली है। यहां यह भी गौरतबल है कि अतिथि गृह के ऊपर वाले हिस्से पर कैंट बोर्ड का ही कब्जा था, लेकिन ऊपरी हिस्से पर जाने का रास्ता नहीं था, जो दो दिन पहले सीईओ की पहल पर बनाया गया, ताकि बोर्ड के स्टाफ की वहां आवाजाही हो सके या फिर उस हिस्से से कमाई का कोई साधन बन सके।
