Tuesday, August 12

कौव्वों के कोसने से ढोर नहीं मरते! पुस्तकप्रेमी चिंतित ना हो इनका वर्चस्व कम होने वाला नहीं है बढ़ती महंगाई और सरलता से कंटेट मिल जाने से लोकप्रिय हो रही है ऑनलाइन पढ़ाई

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पुस्तकालयों की संख्या में आने वाली कमी को लेकर कुछ लोगों द्वारा विभिन्न रूपांे में डिजिटल मीडिया को दोष दिया जा रहा है। मैं उनकी बातों को तो गलत नहीं ठहराता लेकिन एक बात अब सबको समझनी होगी और वो यह है कि एक तो सरकार और दूसरे पुस्तकालयों की प्रबंध समितियां और कॉलेजों की लाइब्रेरी के रखरखाव में आई कमी के बावजूद देश दुनिया में नए नए पुस्तकालय खुल रहे हैं और इसके लिए आंदोलन चल रहे हैं। इसके उदाहरण के रूप में गत दिवस केंद्रीय मंत्री धर्मेंद्र प्रधान जी के द्वारा श्रीनगर के एसकेआईसीसी में नौ दिवसीय चिनार पुस्तक महोत्सव का उदघाटन करते हुए कहा कि जम्मू-कश्मीर समस्या का समाधान बंदूक या लाठियों में नहंी कलम में ही हैं। उन्होंने कहा कि कश्मीरी समाज एक शिक्षित समाज है। पुस्तक को आधार बनाकर पर्यटन क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन हो रहा है। जैसे जैसे व्यवस्था आगे बढ़ेगी लोगों के विकास में जम्मू-कश्मीर में समृद्धि आएगी। उन्होंने कहा कि जम्मू-कश्मीर में पुस्तकालय आंदोलन को बढ़ावा देने के लिए राष्ट्रीय पुस्तक न्यास प्रदेश में विभिन्न केंद्रीय योजनाओं को लागू करेगा। अगले साल चिनार महोत्सव स्थानीय भाषाओं की पुस्तकों का अन्य भाषाओं मंे अनुवाद किया जाएगा। दूसरी ओर पुस्तकालयों की संख्या कम होने को लेकर चिंतित लेखकों साहित्कारों से मेरा आग्रह है कि वो गिलास में भरे पानी को आधा खाली कहने की बजाय आधा भरा समझकर आगे बढ़े और डिजिटल मीडिया की आलोचना छोड़ें तो पता चलेगा कि देश में आज भी पुराने पुस्तकालयों में साहित्य प्रेमी और परीक्षाओं की तैयारी कर रहे छात्र पहुंच रहे हैं और इससे बड़ी बात छात्रों में पुस्तक प्रेम या उसकी मान्यता कहां तक बढ़ रही है इसका अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि देश के ज्यादातर जिलों और कस्बों में कॉमर्शियल पुस्तकालय चल रहे हैं जहां छात्र हर माह शुल्क देकर साहित्य और कंपटीशन की किताबें पढ़कर अपना ज्ञान बढ़ा रहे हैं। इसलिए पुस्तकालयों की संख्या में कमी को नकारात्मक रूप में पेश ना करके रचनात्मक वर्णन किया जाए तो ज्यादा अच्छा है क्योंकि पुस्तकों के प्रति आकर्षण और ज्ञान हमेशा लोगों को आकर्षित करना रहेगा। इससे कोई भी इनकार नहीं कर सकता।
अब जहां तक डिजिटल पुस्तकालयों या पुस्तकों की ऑनलाइन पढ़ाई को लेकर जो लोग चिंतित हैं वो यह समझ लें कि जो बच्चे डिजिटल पुस्तकें पढ़ रहे हैं पहले भले ही आत्मा की खुराक किताबें होती थी अब वही शब्द डिजिटल पुस्तकों में पढ़ने को मिल रहा है वो भी बिना किसी ज्यादा खर्च के। ऐसे में यह कहना कि भारत में 18 से 24 आयुवर्ग वाले 70 प्रतिशत छात्र ऑनलाइन कंटेट पढ़ने को प्राथमिकता दे रहे हें इसके पीछे मजबूरी यह है कि निरंतर महंगी होती किताबें और घटती कमाई ने पुस्तक खरीदने में आम आदमी को कमजोर कर दिया है। इसलिए यह कह सकते हैं कि भारत में सार्वजनिक पुस्तकालयों की संख्या में दो दशक में 20 प्रतिशत तक कमी आई है। मुझे लगता है कि ऑनलाइन कंटेट पढ़ने और उसे प्राथमिकता देने वालों पर टिप्पणी करने की बजाय पुस्तकालयों की कमी को लेकर चिंतित महानुभावो को अपने स्तर पर आंदोलन शुरू करना चाहिए और नए नए पुस्तकालय और पुराने की स्थिति सुधारने और उनमें कंपटीशन व साहित्य की पुस्तकें सरकारी या उ़द्योगपतियों के सहयोग से संग्रहित कराएं तो उन्हें यह कहने का मौका नहीं मिलेगा कि नेशनल सेंपल सर्वे 2022 के अनुसार 10 से 18 आयुवर्ग के 65 प्रतिशत बच्चे रोजाना तीन घंटे से अधिक समय स्क्रीन पर बीताते हैं। इनका यह दर्द कि बच्चे अब कहांनियां दादा दादी से नहीं यूटयूब से सुनते हैं। टीचर पीडीएफ लिंक भेजने में व्यस्त हैं। अभिभावक भी स्क्रीन टाइम के हिस्सेदार बन रहे हैं जिससे किताबों की दौड़ पीछे छूट गई है। यूनेस्कों की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में पुस्तकालयों का उपयोग 90 के दशक के मुकाबले 40 प्रतिशत तक कम हो गया है। मेरा ऐसी सोच रखने वाले लेखकों साहित्यकारों से आग्रह है कि समयानुसार व्यवस्था में परिवर्तन होना वक्त की मांग है। अगर जहां से ज्यादा जानकारी प्राप्त हो रही है तो इसमें कोई हर्ज भी नहीं है। ऑनलाइन कंटेट और सोशल मीडिया मंचों को कोसने और दोषी ठहराने की बजाय हम अच्छा कंटेट ऑनलाइन पढ़ने के लिए प्रेरित करें तो वो ज्यादा अच्छा है। घबराने की जरूरत नहीं है। सरकारें पुस्तकालयों को बढ़ावा देने के लिए कई प्रयास कर रही है। और आम आदमी की रूचि भी इस मामले में कम नहीं हुई है। क्योंकि अगर ऐसा होता तो प्रयागराज कुंभ में श्रद्धालु नेशनल बुक रीडिंग के लाउंज में साहित्य का आनंद लेते नहीं दिखाई देते। जहां तक खबरों से पता चलता है अब छोटे शहरों में भी ऑनलाइन कंटेट पढ़ने की सुविधा है और ग्रामीण क्षेत्रों में भी अध्ययन शालाए हैं जिसे देखकर कहा जा सकता है कि अभी किसी ने भी पुस्तकें पढ़ना नहीं छोड़ा है। भले ही वह कितना ऑनलाइन अध्ययन करते हों।
मैं किसी भी साहित्यकार या पुस्तकालयों की संख्या में कमी आने की बात को झूठा ठहराने की बात नहीं कर रहा हूं लेकिन यह जरूर कहना चाहता हूं कि मेज कुर्सी पर बैठकर सिर्फ एक पक्ष को दोषी ठहराने की सोच के साथ ऑनलाइन पढ़ाई को दोष देना समय की मांग नहीं है। ना इससे कुछ होने वाला है। मैं किसी व्यक्ति पर यह टिप्पणी नहीं कर रहा लेकिन कौव्वों के कोसने से जिस प्रकार ढोर नहीं मरते उसी प्रकार किसी के कहने या नकारात्मक आंदोलन चलाने से ना तो पुस्तकालयों की संख्या बढ़ने वाली है और ना ऑनलाइन पढ़ने वालांे की संख्या घटने वाली है। भगवान ने हमें सोचने की शक्ति दी है इसलिए इस बात से घबराने की बजाय कि आज बच्चे स्मार्टफोन की चमक में खो जाते हैं के स्थान पर हम यह भी देंखें कि आज भी देश के स्कूलों में कंपयूटर भी विषय के रूप में पढ़ाया जाता है। शायद इसलिए पहले सस्ती मिलने वाली किताबें अब हजारों रूपये में मिल रही है। अगर पढ़ने वाले नहीं है तो वो कौन खरीद रहा है। यह भी सोचना होगा।
अब बात मैं अपनी करूं तो मैं ज्ञानी व्यक्ति नहीं हूं। एक अनपढ़ व्यक्ति जिसने कभी स्कूल का मुंह नहीं देखा और शब्द मिला मिलाकर पढ़ना सीखा हो उसके बावजूद मेरा यह मानना है कि नई तकनीक को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जरूर है उसकी आंधी में पुरानी परंपराओं को बचाकर रखने की और मुझे अभी ऐसा नहीं लगता कि पुस्तकों का प्रचलन समाप्त हो रहा है। बढ़ती महंगाई व अन्य कारणों से थोड़ी कमी आने की बात से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन इसे लेेकर चिंता की बात नहीं है। सभी जानते हैं कि स्वादिष्ट व्यंजन भरपेट खाए जाते हैं लेकिन कभी कभी उन्हें खाने की इच्छा नहीं होती। इसका मतलब यह नहीं है कि हम भोजन के प्रति उदासीन हो रहे हैं। पुस्तकों के प्रचलन को लेकर विचार करें तो पुस्तकों का वर्चस्व हमेशा रहा है और रहेगा क्योंकि पिछले दिनों एक पिक्चर में अमेरिकी राष्ट्रपति निर्णयों से पहले अनेकों किताबों का अवलोकन करते दिखाई दिए और उनसे प्राप्त जानकारी के आधार पर फैसले लिए गए। अमेरिका में हमारे यहां से ज्यादा ही आनलाइन कंटेट पढ़ा जाता होगा।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)

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