कब किसकी मौत कहां कैसे आ जाए यह कहा नहीं जा सकता और जिसकी आ गई वो गरीब हो या अमीर बच नहीं सकता क्योंकि यह अटल सत्य है कि जो आया है उसे जाना ही है माध्यम कुछ भी बन जाए। कई मौको ंपर सुना कि समय से इलाज मिल जाता तो बच जाता जैसा डॉक्टर कहते हैं कि अगर पांच मिनट और देर की जाती तो ऐसे ही जीवन मरण का मामला है। यह जरुर है कि पहले मौत कैसे हुई यह नहीं पता चलता था अब सरकार ने इतनी सुविधाएं फ्री इलाज की दे रखी है कि अगर लोग चौकस है तो उनका लाभ उठा सकते हैं और मरने का कारण जान सकते हैं लेकिन पहले ऐसा नहीं था। जिसको जाना था वो गया परिवार के लोग रोकर और मिलने वाले श्रद्धांजलि देकर अपनी जिम्मेदारी पूरी कर लेते थे। कहते हैं कि एक सज्जन अमेरिका से आए और लौटकर उन्होंने अपने लोगों को बताया कि भारत में लोग संतुष्ट और आशावादी हैं। एक आदमी मरा कुछ घंटे रोना हुआ अंतिम संस्कार के बाद शोक संवेदना व्यक्त करने व मिलने वाले आने लगे। उठावनी के बाद ८० प्रतिशत एवं तेहरवी के बाद कार्य रूटीन से होने लगे इसका मतलब है कि जीना नहीं छोड़ा जा सकता और जीने के लिए काम भी करना पड़ेगा। अब व्यवस्थाएं बदली हैं। शोक व्यक्त करने का माध्यम भी बदल गया है। पहले घर घर आदमी भेजकर अंतिम संस्कार की सूचना दी जाती थी और उठावनी और तेहरवी की सूचना भी घर घर पहुंचाई जाती थी। आज सोशल मीडिया पर इसकी जानकारी दी जाती और लोग इसे पढ़कर पहुंच जाते हैं। पुराने समय में तेहरवी में बुजुर्ग आदमी है तो लडडू पूरी व आलू व कददू की सब्जी परोसी जाती थी लेकिन अब वर्तमान में बढ़ चढ़कर तेहरवी की दावत होती है होटलों में आयोजन होता और मंडप में भी करते हैं। इस मौके पर कई व्यंजन मिठाई और आईसक्रीम तक परोसी जाती हैं। यहां तक तो सब ठीक है लेकिन कुछ सालों से मृतक की अच्छाईयों का बखान करने और भाषणबाजी में पहले धार्मिक आयोजन कराने वाले काफी समय लेते हैं और संचालन कर्ता और फिर आमंत्रित। कहीं कहीं तो इतना विस्तार से करते हैं कि कहना पड़ता है कि अब समाप्त करो। बड़े लोगेां के यहां संगीतमय श्रद्धांजलि देने का चलन हो गया है। जिसमें दो घंटे तक लग जाते हैं ऐसे में लोग भगवान से मृतक को अपने चरणों में स्थान देने की बजाय टिप्पणियां करने लगते हैं कि इतना लंबा प्रोग्राम खींच लिया। आयोजकों को चाहिए कि काम जल्दी निपटाएं जिससे लोग रोजमर्रा के कार्य भी कर सकें। क्योंकि तेहरवी भोज करने वाले कर लेते हैं और जो देखने में आया कि यह जो आधुनिक पद्धति श्रद्धांजलि देने की चल पड़ी है उसमें शोकसंवेदना में आने वाले कम और धीरे धीरे आलोचना ज्यादा करने लगते हैं। साल भर में कम से कम ५० जगह तो जाना होता ही है। इसमें कोई समस्या नहीं है लेकिन यह जो लंबी व्यवस्थाएं चलती हैं यह कष्टदायक होती है। अच्छा तो यह है कि परिवार के लोग संगीतमय कार्यक्रम समय से पहले करा लें वरना मैं तो एक ही बात कहना चाहता हूं कि मेरे मरने पर श्रद्धांजलि का लंबा कार्यक्रम मत करना और ना ही किसी को विभिन्न तरीके से आने के लिए प्रेरित किया जाए। जो मर गया उसकी आत्मा की शांति के लिए जितने लोग आ जाएं वो जल्दी जल्दी भगवान से प्रार्थना कर अपने घर को जाएं तो कम से कम मन से जिन्होंने श्रद्धांजलि दी भगवान उससे खुश होकर अगर कष्ट देने जा रहा है तो कुछ कम कर देगा लेकिन मेरा आग्रह है कि मेरी उठावनी और तेहरवी में फालतू आडंबर ना किया जाए वो ही मरने के बाद मेरी आत्मा की शांति के लिए सबकी भावनात्मक श्रद्धांजलि होगी।
अब रही बात तेहरवीं भोज की तो वैसे तो खासकर ग्रामीणों में इसके खिलाफ आवाज उठ रही है लेकिन फिर भी करना हो तो जो पुरानी व्यवस्था थी आलू पुरी भ्रेलिये की सब्जी की वो ही सक्षम है क्योंकि कुछ लोगों द्वारा आयेाजन को भव्य बनाने से मध्यम दर्जे के व्यक्ति को परेशानी होती और कुछ लोग कर्ज लेकर यह क्रिया पूरी कराते हैं। मेरा उनसे कहना है कि देख पराई चुपड़ी मत ललचा जी को आत्मसात कर अपनी हैसियत अनुसार आलू पुरी खिला दो या पानी पिलाकर विदा कर दो लेकिन कर्ज लेकर भोज ना किया जाए तो ही अच्छा है।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
मेरे मरने के बाद श्रद्धांजलि देने वालों के समय का रखा जाए ध्यान
Share.