देशभर में धार्मिक स्थल बस अडडा रेलवे स्टेशन मुख्य चौराहों पर भीख मांगते कई व्यक्ति नजर आते हैं। लेकिन अब वाहनों के अंदर और बाजारों व मोहल्लों में भी इनका नजर आना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। शहरों में मासूम बच्चों से बड़े बुजुर्ग और नौजवान भी ऐसा करते नजर आते हैं। कई जगह पर खाने पीने की दुकानों पर भी यह दिखाई दे जाते हैं। पहले सड़क पर भीख मांगते कुछ लोग नजर आते थे लेकिन अब अच्छे कपड़ों में व्यक्ति भी यह कहकर कि वो पर्स भूल गए या जेब कट गई मुझे कुछ रूपये दे दो घर पहुंचते ही वापस कर दूंगा जैसे हथकंडे अपनाने लगे हैं। दुकानों और घरों पर कुछ महिलाएं बेटा बेटी बीमार है या लड़कियों की शादी करानी है या अच्छे खासे लोग भी जो मेहनत कर रोटी कमा सकते हैं मगर भीख मांगने को अपना अधिकार समझने लगते हैं क्योंकि उनकी आंखों की शर्म और सोचने की शक्ति धीरे धीरे इसी तरफ बढ़ती चली जाती है।
कई बार सरकार अदालत और सामाजिक संगठनों व मीडिया ने भी इस मामले में आगे बढ़कर प्रयास किए कि लोग काम करने लगे भींख ना मांगे। मुझे याद आता है कि लगभग डेढ़ दशक पूर्व एक कलेक्टर ने कुछ भीखारियों को शासन की योजनाओं में घर उपलब्ध कराए और उसका पैसा भी समाजसेवियों और एनजीओ से दिलवाने के साथ अपने पास से भी दिया। लेकिन कुछ दिनों बाद भिखारी वहीं जमे रहे और मकान में कोई और रहने लगा। इसका कारण पता चला कि कई भिखारी लाखों रूपये की मालिक हैं लेकिन जो इस काम से कमाते हैं वो अपने गांव को भेज देते हैं और फिर भीख मांगने लगते हैं। यह चस्का कितना बुरा है। इसका दो बार मैं भी शिकार हो चुका हू। चार दशक पूर्व एक सज्जन बोले कि सहारनपुर जाना है। पैसे नहीं है भीख नहीं मांग सकता मुझे 20 रूपये दे दो। उनकी हालत देख उन्हें पैसे दे दिए लेकिन उन्होनंे पैसा वापस नहीं भेजा। एक प्रमुख व्यक्ति कमिश्नर के यहां गए और आंखों का ऑपरेशन कराने के लिए मदद की मांग की। कमिश्नर ने मौजूद लोगों से आग्रह किया लेकिन कोई भी उनकी पूर्ति नहीं कर पाया तो उन्होंने मुझ से कहा कि आप 15 हजार की मदद कर दें तो मैंने अपने आरकेबी फाउंडेशन की ओर से उन्हें 15 हजार रूपये देने के साथ ही उन्हें खाना भी खिलाया । बाद में पता चला कि वो तो इस प्रकार का धंधा करते हैं। अलीगढ़ के अस्पताल से उसके कागज चुरा लिए थे। कुछ साल बाद अपनी बेटी की शादी के नाम पर 50 हजार के सामान की सूची लेकर मेरे कार्यालय पर आ गए। वह मुझे पहचान नहीं पाए और हड़काने पर चुपचाप चले गए। कहने का मतलब है कि भीख मांगने के नए तरीके इजाद कर लिए गए हैं और इनकी भीड़ बढ़ती जा रही है। एक खबर पढ़ने को मिली कि पंजाब के चौराहों से भिखारी गायब हुए। खबर मंें लिखा था कि उसने अभियान चलाया था। भिखारी तो गायब नहीं हुए लेकिन अपना महिमामंडन करने के लिए अखबार ने खबर छाप दी।
अब तो नई समस्या कुछ सालों से सामने आ रही है। सुनाई देता है कि फलां व्यक्ति को किडनी या आंखों की जरूरत थी और एक भिखारिन का इस बारे में सक्रिय गिरोह ने ब्लड टेस्ट कराया तो किडनी वाले से उसका मेल खा गया। इस पर उसकी किडनी व अन्य जरूरतमंद अंग निकाल लिए गए। पंजाब में भिखारियों की खबर सही है तो अच्छी बात है। लेकिन जिम्मेदार एजेंसियों को यह भी पता कराना चाहिए कि जो सड़कों पर भीख मांगते हैं और कुछ समय बाद गायब हो जाते हैं कहीं उन्हें किडनी निकालने वाले गिरोह के लोग तो उठाकर नहीं ले जा रहे। यह खबर सजग करने वाली भी है क्योंकि कुछ समय ये लोग सामान्य नागरिकों को भी उठाने लगते हैं। ऐसी खबरें कई बार पढ़ने को मिली।
वैसे तो यह बढ़ते ही जाते हैं लेकिन जहां तक मुझे लगता है कि अगर समाज में इनकी संख्या शून्य करनी है तो समाजसेवी संगठनों के साथ ही उद्योगपतियों और व्यापारियों व सरकार को अभियान चलाकर इनके लिए आश्रम आदि खोले जाएं और वहां इनका इलाज खाने और पढ़ाई की व्यवस्था कराई जाए तो कुछ दशक में भिखारियों की प्रजाति समाप्त हो जाती है। क्योंकि जो पढ़ेंगे वो नौकरी करेंगे। इस बारे में फिल्मो में बहुत कुछ देखने को मिलता है लेकिन मेरठ के बागपत रोड पर स्थित विद्या यूनिवर्सिटी के कुलाधिपति प्रदीप जेैन द्वारा जो भैया जी आश्रम खोला गया है ऐसे प्रयास भिखारियों की संख्या में कमी का कारण बन सकते हैं। यह अच्छी बात नजर आती है कि अगर कोई ऐसा प्रयास करता है तो उसे कुछ मांगने की जरूरत नहीं है। लोग खुद वहां पैसे और खाद्य सामग्री इतनी पहुंचा देते हैं कि वो कम नहीं पड़ती। इस मामले में काली पलटन मंदिर के पास अन्नपूर्णा मंदिर ट्रस्ट द्वारा तीन दशक से भूखों को खाना खिलाने की जो शुरूआत की गई अब यहां प्रतिदिन सौ लोगों को खाना परोसा जाता है। इसके लिए पैसा देने वालों की लाइन लगी रहती है। लोग एक माह पहले अपनी बुकिंग कराते हैं। कोई पांच तो कोई दस हजार इस काम के लिए दिया जाता है। कहने का मतलब है कि ईमानदारी से प्रयास हो जाए तो सहयोग करने वालों की कोई कमी नहीं है। वर्तमान में तो ऐसे लोगों की तादात बढ़ती जा रही है। पागल भिखारियों के लिए भी अच्छा आश्रम बन रहे हैं और दूर दूर से लोग मदद करने आते हैं। मई में हमारे द्वारा संचालित आरकेबी फाउंडेशन में जमा साढ़े छह लाख रूपये अपना घर सुखधाम आश्रम को दान दिए गए। अब काफी लोग सहयोग के लिए वहां पहुंच रहे हैं। भिखारियेां से छुटकारा पाना है तो लोगेां को आगे आना होगा।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)
भिखारियों की प्रजाति को रोकना है तो सेवा भाव से काम करने वालों को आगे आना होगा
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