Tuesday, October 14

सीजेआई पर जूता फेंकने का प्रयास निंदनीय व शर्मनाक है, 362 महिलाओं ने एक पेड़ को बचाने के लिए कटवा दी थी अपनी गर्दन, जो अब नहीं कर पाएंगे, इस घटना को किसी और रूप में देखना उचित नहीं है, शब्दों के उपयोग में संयम जिम्मेदारों के लिए जरुरी है

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सुप्रीम कोर्ट में सीजेआई पर जूता फेंकने वाली घटना धार्मिक उन्मादंता की पराकाष्ठा और सीधे सीधे कहें तो संवैधानिक व्यवस्थाओं पर हमला है। हमारी सोच किधर जा रही है इसका भी इससे ज्ञान होता है। इतनी बड़ी घटना के बावजूद खबरों के अनुसार कुछ समय का व्यवधान तो न्यायिक कार्य में पड़ा लेकिन पूरे धैर्य का परिचय देते हुए शांत चित से सीजेआई बीआर गवई मुकदमे सुनते रहे। इस घटना की प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी कांग्रेस की पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष सोनिया गांधी राष्ट्रीय अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह बिहार में विपक्ष के नेता तेजस्वी यादव आप सांसद संजय सिंह, एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार आदि सहित सॉलिस्टिर जनरल तुषार मेहता, वरिष्ठ अधिवक्ता इंदिरा जय सिंह, सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी सीजेआई की कोर्ट में इस घटना पर निंदा और आक्रोश व्यक्त किया है। एओआर एसोसिएश ने भी इस घटना पर रोष व्यक्त किया है। खजुराहो के एक धार्मिक मामले को लेकर इस घटना को अंजाम देने वाले अधिवक्ता राकेश किशोर को वकालत करने के लिए अयोग्य करार देते हुए उनका लाइसेंस निलंबित किया गया है। सीजेआई द्वारा यह कहने पर कि चेतावनी देकर उसे छोड़ दिया जाए के बाद पुलिस ने अधिवक्ता से पूछताछ कर उसे छोड़ दिया। बताते हैं कि दोषी अधिवक्ता जो दिल्ली हाईकोर्ट, कडकडडूमा कोर्ट और अन्य अदालतों में पै्रक्टिस करते रहे हैँ उनकी जेब से मिले एक पत्र के अनुसार अब सनातन धर्म का अपमान नहीं सहेगा हिन्दुस्तान जैसे नारे लगाए और उनके पास से एक नोट भी मिला बताते हैं। सुरक्षा कर्मी ने ऐसा होने से रोक लिया।
दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक अपने देश में सभी धर्मों को मानने का अधिकार प्राप्त है और सभी एक दूसरे के धर्मों का सम्मान करते हैं। मैं ही क्या देश का हर व्यक्ति किसी ना किसी धार्मिक भावना से जुड़ा है। दुनिया चलाने वाले को सब भले ही अलग अलग नामों से पुकारते हों लेकिन धार्मिक उन्माद बिल्कुल नहीं होना चाहिए। क्योंकि इसके लिए देश और समाज में कोई स्थान नहीं है। सीजेआई ने दोषी वकील को छोड़ने की बात कहकर अपनी श्रेष्ठता औरमानवहित की सोच का परिचय दिया जो अपने आप में एक बड़ी बात कह सकते हैं। धर्म और भगवान का सम्मान और आस्था रखते हुए वकील द्वारा की गई यह घटना की निंदा सभी कर रहे हैं। मेरा मानना है कि यह जो शर्मनाक और अशोभनीय घटना हुई भविष्य में चाहे किसी जिले की अदालत हो या सुप्रीम कोर्ट ऐसी घटनाओं को कोई अंजाम ना दे पाए उसके लिए ठोस व्यवस्थाएं सरकार को करनी चाहिए। क्योंकि अगर ऐसी बातों पर ध्यान नहीं दिया गया तो हर व्यक्ति ऐसे मामलों को अंजाम देने की सोच सकता है। जबकि देश में न्याय के मूल्यों और संविधान की भावना हमेशा मजबूत रही है और आज जिस लोकतांत्रिक वातावरण में हम सांस ले रहे हैं वो संविधान के सम्मान से ही हो रहा है। मैं हमेशा एक बात दोहराता रहा हूं कि अगर पुलिस किसी के चांटा मारती है तो कितने ही लोग विरोध में खड़े हो जाते हैं मगर अदालत से किसी को फांसी की भी सजा मिलती है तो तमाम आदमी उसे बिना किसी विरोध प्रदर्शन के स्वीकार करते हैं। जैसा कि समाज में ज्यादातर लोग सोचते हैं उसके अनुसार पिछले कुछ दशक में धार्मिक कटटरता और नफरत ने हमारे समाज को एक ऐसी जकड़न में जकड़ लिया है उससे मुक्त होना जरुरी है क्योंकि ऐसी बढ़ती नफरत को नहीं रोका गया तो न्यायपालिका ही क्या देश के चारों स्तंभों में से किसी का अपमान करने की हिम्मत कोई भी कर सकता है। कोई भी व्यक्ति न्यायपालिका की गरिमा पर हमले को ना सही समझता है ना उसका पक्षधर है।
सीजेआई बीआर गवई की सहनशीलता और धैर्य से मुझे लगता है कि समाज को सबक लेना चाहिए क्योंकि इससे जो बड़ी बड़ी बाते हो जाती हैं वो रुक सकती है। जहां तक अधिवक्ता का सवाल है उसे तो संविधान में विश्वास रखने वाले संगठनों बार काउंसिल ऑफ इंडिया व अन्य संस्थाओं के लोग ही सबक सिखाएंगे। क्योंकि शिवसेना हो या तमिलनाडु के सीएम हर कोई इस मामले की निंदा और वकील राकेश किशोर की कोशिश को शर्मनाक बता रहा है। इस घटना को लेकर कई तरह के सवाल उठ रहे हैं। कोई इसे दलित समाज से जोड़ रहा है तो कोई कुछ कह रहा है। केंद्र सरकार जातिगत सम्मेलनों और जातियों के नाम का प्रदर्शन करने पर रोक लगा रही है। देश में जितना दलितों के बारे में सोचा जाता है उतना आम आदमी के बारे में सरकार नहीं सोचती। इसलिए इस मुददे को दलित समाज से ना ही जोड़ा जाए तो अच्छा है क्योंकि सीजेआई सबके हित का निर्णय देते हैं।
मैं किसी भी निर्णय या अदालत के फैसले पर टिप्पणी नहीं कर रहा लेकिन उच्च पदों पर बैठे लोगों से एक आग्रह कर रहा हूं कि अपने यहां हर व्यक्ति की धार्मिक भावनाएं और आस्थाएं होती हैं। पूर्व में चाहे मुगलों का शासन रहा हो या अंर्ग्रेजों का धार्मिक भावनाओं पर चोट करने से जब तक कोई बड़ी बात ना हो उससे वह भी बचा करते थे। स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत में कहीं ना कहीं गाय की चर्बी से बने कारतूसों के बहिष्कार का बड़ा योगदान था क्योंकि हिंदू सैनिकों के लिए यह मुददा आस्था से जुड़ा था। परिणामस्वरूप देश में हिंदू मुस्लिम सभी ने स्वतंत्रता आंदोलन मं अपना योगदान दिया। बताते हैं कि बिश्रोई समाज के गुरू जम्भेश्वर महाराज के अनुयायियों द्वारा सैंकड़ों वर्ष पूर्व धार्मिक भावनाओं से एक पेड़ को बचाने के लिए ३६२ महिलाओं ने अपनी गर्दन कटवा दी थी।
इसलिए सभी से आग्रह है कि अगर कोई भगवान अल्लाह से संबंध मामला हो तो उसमें शब्दों का उपयोग बहुत सोच समझकर किया जाना चाहिए यह बात ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए जरुर सोचनी होगी। जहां तक अधिवक्ता राकेश किशोर की है तो उन्हें खजुराहों के अंदर भगवान विष्णु की खंडित मूर्ति की रखरखाव की जरुरत थी तो उन्हें अदालत नहीं जाना चाहिए था। देश में लोग करोड़ों रूपये धर्म के नाम पर दान देते हैं अगर उनसे या जनता से मदद ली जाती तो भगवान की प्रतिमा को लेकर पैसा एकत्र हो सकता था जिससे प्रतिमाओं का भी सुधार हो सकता था। मेरा मानना है कि हर आदमी किसी ना किसी भगवान का भक्त है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि वह संविधान विरोधी घटनाओं को अंजाम दें। गृहमंत्री अमित शाह ने भी इस घटना का विरोध किया है। कानून मंत्रालयों को जजों व अदालत की सुरक्षा के विशेष इंतजाम करने चाहिए जिससे कोई ऐसा ना कर पाए।
बीती १६ सितंबर को सीेजेआई बीआर गवई की बेंच ने खजुराहों के मंदिर में भगवान विष्णु की खंडित प्रतिमा से संबंध याचिका खारिज की थी। सरकार पुरात्व विभाग को आदेश दे कि वह अपना काम जिम्मेदारी से करे और यह सूचनाएं एकत्रित करें कि प्राचीन मूर्ति या स्थान को सुधार की आवश्यकता है। क्योंकि इससे संबंध फैसला जब सीजेआई ने दिया था तब हिंदूवादी संगठनों ने कहा था कि जिस तरह का धार्मिक उन्माद पैदा किया है उससे न्यायपालिका भी संक्रमित हो गई लगती है।
(प्रस्तुतिः- रवि कुमार बिश्नोई संपादक दैनिक केसर खुशबू टाइम्स मेरठ)

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